जातीय भेदभाव की जड़ें भारतीय समाज में इतनी गहरी हैं कि इसका आकलन करना आसान नहीं है। समय-समय पर कुछ घटनाएं इस जातिवाद की गहराई को सतह पर लाती हैं, लेकिन यह समस्या समाज में बहुत लंबे समय से व्याप्त है। इसका एक उदाहरण हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया गया निर्णय है, जिसमें पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर अदालत ने जेल मैन्युअल के कुछ प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित किया, जिनके आधार पर कैदियों के साथ जातीय भेदभाव किया जा रहा था। यह फैसला इस बात का प्रमाण है कि जातीय भेदभाव हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को आज भी कैसे कलंकित कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया है कि वे तीन महीने के भीतर अपने जेल मैन्युअल को संशोधित करें, ताकि भविष्य में कैदियों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव न हो सके। संविधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद, आजादी के इतने साल बाद तक भी कैदियों को जातीय आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा, यह एक गंभीर प्रश्न है।
यह बात चिंताजनक है कि जिस समय हम अपनी आजादी के 75 साल मना रहे हैं, तब भी ऐसी पुरानी प्रथाएं हमारे समाज में जीवित हैं, जो संविधान और लोकतंत्र की भावना के खिलाफ हैं। कैदियों को उनकी जाति के आधार पर अलग-अलग काम सौंपना कोई नई बात नहीं है। यह प्रथा औपनिवेशिक काल से भी पहले की है। अंग्रेजों ने इस प्रणाली में कोई बदलाव नहीं किया, क्योंकि उनके लिए भारतीयों के मानवाधिकारों का कोई मूल्य नहीं था। उनके उद्देश्य भारतीय समाज को और विभाजित करना था, ताकि वे इसे आसानी से नियंत्रित कर सकें। लेकिन आजादी के बाद इतने दशकों तक भी हमने इन व्यवस्थाओं को क्यों नहीं बदला, यह सवाल हम सब पर उठता है।
जेल मैन्युअल में जातीय भेदभाव का उल्लेख ब्राह्मणों से भोजन पकवाने और तथाकथित ‘नीची जातियों’ से सीवर सफाई और मैला ढुलवाने के काम को लेकर किया गया है। इसमें ‘हरि’ और ‘चांडाल’ जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह नियम औपनिवेशिक मानसिकता का हिस्सा थे, जिसे हम आजादी के बाद भी बदलने में असफल रहे। यह हमारी विफलता नहीं तो और क्या है? क्या हम एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में अपने नागरिकों को समान अधिकार दिलाने में विफल नहीं हुए हैं?
लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही हर उस कानून और प्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए था, जो हमारे संविधान की मूल भावना के खिलाफ थी। यह कहना कि ‘देर आए, पर दुरुस्त आए’, इस मामले में शायद संतोषजनक हो सकता है, लेकिन यह सोचने की बात है कि हम इतने सालों तक इसे अनदेखा कैसे करते रहे। इस प्रकार के कानून न केवल लोकतंत्र की भावना के खिलाफ हैं, बल्कि यह समाज में विभाजन और भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। जेल मैन्युअल में जातीय भेदभाव एक ऐसा दाग है, जिसे मिटाने के लिए यह कदम महत्वपूर्ण था।
इस फैसले तक पहुंचने का श्रेय निश्चित रूप से पत्रकार सुकन्या शांता को जाता है, जिन्होंने इस मुद्दे को सामने लाकर न्यायपालिका का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने अपने कर्तव्य को बखूबी निभाया और नागरिक धर्म का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। प्रधान न्यायाधीश डीवाय चंद्रचूड़ ने भी इस याचिका की सराहना की और इसे अच्छे शोध पर आधारित जनहित याचिका बताया। यह पत्रकारिता का एक ऐसा उदाहरण है, जहां एक व्यक्ति ने समाज की बेहतरी के लिए आवाज उठाई और न्यायालय को एक महत्वपूर्ण निर्णय तक पहुंचाया।
यह मामला केवल जेल मैन्युअल में सुधार का नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज में जातीय भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक कदम है। हमें यह समझना होगा कि जातिवाद न केवल हमारे समाज के ताने-बाने को कमजोर करता है, बल्कि यह हमारी लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों पर भी हमला है। संविधान में दी गई समानता और स्वतंत्रता का अधिकार हर नागरिक का मूलभूत अधिकार है, और इसे किसी भी प्रकार से सीमित करना या इसका उल्लंघन करना अस्वीकार्य है।
हमारे समाज में बदलाव लाने के लिए केवल कानूनी सुधार पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता है। जातिवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इसे समाप्त करने के लिए हमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रयास करने होंगे। यह जिम्मेदारी केवल सरकार या न्यायपालिका की नहीं है, बल्कि समाज के हर व्यक्ति की है कि वह इस भेदभाव को खत्म करने में योगदान दे। सुकन्या शांता की तरह, हमें भी अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि हर नागरिक को समान अधिकार मिले।
जातीय भेदभाव केवल एक कानूनी या सामाजिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक मानसिकता का प्रतिबिंब है जो सदियों से हमारे समाज में बनी हुई है। इसे समाप्त करने के लिए हमें शिक्षा, जागरूकता और समानता के विचार को बढ़ावा देना होगा। आज जब हम एक विकसित और प्रगतिशील समाज की ओर बढ़ रहे हैं, तब हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि जातिवाद जैसे मुद्दे हमारे समाज में कोई स्थान न पाएं। हमें उन प्रथाओं को समाप्त करना होगा जो हमें विभाजित करती हैं और समानता के सिद्धांत को अपनाना होगा, ताकि हर व्यक्ति को उसका अधिकार मिल सके।
इस संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक सुधार की दिशा में भी एक बड़ा कदम है।