लेखक तुषार यादव,राजगढ़ (धार)
भुजरिया पर्व का आरंभ:
नागपंचमी से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरिया पर्व का समापन होता है। यह पर्व नगर में आपसी भाईचारे और सद्भावना के प्रतीक के रूप में सदियों से मनाया जाता आ रहा है। समाजजन इसे आज भी बड़े उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं। यह पर्व न केवल प्रकृति प्रेम का प्रतीक है, बल्कि खुशहाली और समृद्धि की कामना के लिए भी मनाया जाता है।
भुजरिया: नई फसल का प्रतीक
सावन के महीने की अष्टमी और नवमीं को छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोए जाते हैं। इन्हें नियमित रूप से पानी दिया जाता है, और लगभग एक सप्ताह में ये अंकुरित हो जाते हैं, जिन्हें ‘भुजरिया’ कहा जाता है। सावन में इन भुजरियों को झूला देने की परंपरा भी है, जो हमारी संस्कृति में प्रकृति से जुड़े रहने का प्रतीक है।
भुजरियों की पूजा का महत्व:
श्रावण मास की पूर्णिमा तक भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। रक्षाबंधन के अगले दिन इन्हें एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं और आशीर्वाद दिया जाता है। बुजुर्गों के अनुसार, भुजरिया नई फसल का प्रतीक होती हैं, और इनकी पूजा अर्चना मंगल गीत गाकर की जाती है।
इतिहास और परंपरा:
भुजरिया पर्व का प्रचलन राजा आल्हा-ऊदल के समय से माना जाता है। एक कथा के अनुसार, आल्हा की बहन चंदा जब श्रावण माह में ससुराल से मायके आईं, तो नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया। यह पर्व आज भी बुंदेलखंड की धरती पर आल्हा-ऊदल और मलखान जैसे वीरों की वीरता और पराक्रम की गाथाओं के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान, महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए गाजे-बाजे के साथ नर्मदा तट या सरोवरों में कजलियां खोंटने जाती हैं, और एक-दूसरे को धन-धान्य से पूरित होने का आशीर्वाद देती हैं।
आल्हा-ऊदल का परिचय:
आल्हा और ऊदल महोबा के वीर योद्धा दक्षराज (जस्सराज) और देव कुंवर के पुत्र थे। आल्हा और ऊदल को युधिष्ठिर और भीम का अवतार माना जाता है। इनकी वीरता और पराक्रम की गाथाएं आज भी बुंदेलखंड की धरती पर जीवंत हैं।
**एक वीर गाथा की झलक:**
*आल्हा ऊदल बड़े लड़ैया, चम-चम चमक रही तलवार,*
*मची खलबली रण में भारी, होने लगे वार पर वार।।*
*जब-जब दुश्मन रण में आए, टूट पड़े ऊदल तत्काल,*
*काट-काट सर धूल चटाते, कर रणभूमि रक्त से लाल।।*
भुजरिया पर्व न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर का उत्सव है, बल्कि यह हमारे प्रकृति प्रेम और परंपराओं के प्रति सम्मान का प्रतीक भी है। इस पर्व के माध्यम से हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं और आने वाली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति और परंपराओं से अवगत कराते हैं। इस बार यह पर्व 20 अगस्त 2024 को विशाल धर्ममय शोभायात्रा के साथ धूमधाम से मनाया जाएगा।