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आचार्य श्री का जीवन ही उनका दर्शन था

 


समणपरंवरसुज्जं

सययसंजमतवपुव्वगप्परदं।

चंदगिरिसमाधित्थं 

णमो आयरियविज्जासायराणं ।।


  श्रमण परम्परा के सूर्य,सतत संयम तप पूर्वक आत्मा में रमने वाले और चंद्रगिरी तीर्थ पर समाधिस्थ (ऐसे) आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी को हमारा कोटिशः नमोस्तु ।


विश्वास ही नहीं हो रहा कि

हम सभी के परम गुरु, भारत की पवित्र धरा पर पिछले लगभग छह दशकों से वीतरागी नग्न दिगम्बर उन्मुक्त विचरण करने वाले ,परम तपस्वी , स्वानुभवी आचार्य विद्यासागर जी महाराज, जिन्होंने स्वयं के कल्याण के साथ साथ हम जैसे जीवों के कल्याण के लिए शाश्वत मोक्षमार्ग की शिक्षा देकर हम सभी का परम उपकार किया, लोकोत्तर यात्रा पर निकल गए हैं |


 संयम और ज्ञान की चलती फिरती महापाठशाला के आप  ऐसे अनोखे  आचार्य थे जो न सिर्फ कवि,साहित्यकार और विभिन्न भाषायों के वेत्ता थे बल्कि न्याय,दर्शन ,अध्यात्म और सिद्धांत के महापंडित भी थे ,ज्ञान के क्षेत्र में जितने ऊँचे थे ,उससे कहीं अधिक ऊँचे वैराग्य ,तप,संयम की आराधना में थे | ऐसा मणि-कांचन संयोग सभी में सहज प्राप्त नहीं होता |


विद्यासागर सिर्फ उनका नाम नहीं था यह उनका जीवन था,वे चलते फिरते पूरे एक विशाल विश्वविद्यालय थे , वे संयम , तप, वैराग्य , ज्ञान विज्ञान की एक ऐसी नदी थे जो हज़ारों लोगों की प्यास बुझा रहे थे , कितने ही भव्य जीव इस नदी में तैरना और तिरना दोनों सीख रहे थे |


कितने ही उन्हें पढ़कर जानते थे ,कितने ही उन्हें सुनकर जानते थे ,कितने ही उन्हें देख कर जानते थे और न जाने ऐसे कितने लोग थे जो उन्हें जीने की कोशिश करके उन्हें जानने का प्रयास कर रहे थे |


 इन सबके बाद भी आज बहुत से लोग ऐसे हैं जो कुछ नया जानना चाहते हैं , जीवन दर्शन को समझना चाहते हैं और जीवन के कल्याण की सच्ची विद्या सीखना चाहते हैं उन्हें इस सदी के महायोगी दिगम्बर जैन आचार्य  विद्यासागर महाराज के जीवन और दर्शन अवश्य देखकर ,पढ़कर और जीकर सीखना चाहिए ।


मुझे बहुत ही छोटी बाल्य अवस्था में अपने पूज्य पिताजी वरिष्ठ मनीषी प्रो फूलचंद जैन प्रेमी जी एवं विदूषी माँ डॉ मुन्नीपुष्पा जैन जी के साथ पपौरा चतुर्मास के समय उन्हें आहार देने का प्रथम बार सौभाग्य प्राप्त हुआ था । 

उन दिनों मैं आचार्य श्री का मतलब ही आचार्य विद्यासागर समझता था । अन्य आचार्य भी हैं ये मुझे बहुत बाद में समझ आया ।उसके बाद कई बार उनका सानिध्य प्राप्त हुआ । कुंडलपुर में उन्होंने मेरे पिताजी की शोध पुस्तक ' मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ' की ससंघ वाचना भी की थी । वाचना के अनन्तर उन्होंने उसकी बहुत प्रशंसा की ।

गढ़ाकोटा पंचकल्याणक के अवसर पर मैंने उन्हें अपने द्वारा संपादित प्राकृत भाषा में प्रकाशित होने वाला प्रथम समाचार पत्र 'पागद- भासा' समर्पित किया तो वे गदगद हो गए और बहुत आशीर्वाद दिया । 

 अभी कुछ वर्षपूर्व पिताजी ने उन्हें अपनी पुस्तक ' श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य ' भेंट की तो उन्होंने उसे मंच पर ही पूरा पढ़ डाला।

  अभी फरवरी के प्रथम सप्ताह में ही मेरे माता पिता दोनों उनके दर्शनार्थ डूंगरगढ़ गए तो अस्वस्थता के बाद भी उन्होंने पिताजी के साथ थोड़े समय तत्त्वचर्चा की । पिताजी उनसे चर्चा करके आस्वस्त थे कि वे अब स्वस्थ्य हो जाएंगे । किन्तु विश्वास ही नहीं हो रहा कि इतनी जल्दी उनकी समाधि का समाचार सुनने को मिल जाएगा । 

  वे हाइकू काव्य विधा के भी कवि थे । अतः उनकी समाधि पर मैं अपने जीवन का प्रथम ‘हाइकू’ समर्पित करके उन्हें अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ -

                                                    "विद्यासागर

अनुभव गागर                           

  नमन तुम्हें"                   

णमो आयरियविज्जासायराणं

प्रो अनेकांत कुमार जैन 

आचार्य - जैन दर्शन विभाग,दर्शनपीठ,श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत( केंद्रीय) विश्वविद्यालय,नई दिल्ली

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