राजगढ़ (धार)। जिनशासन में पर्वाधिराज पर्युषण पर्व का अपने आप में बहुत ही महत्व है । जिन शासन के शास्त्रों में लोकिक और लोकोत्तर पर्व बताये गये है । लोकिक पर्व संसारिक पर्व में आते है और लौकोत्तर पर्व में शाश्वत ओली, पर्युषण पर्व आदि आते है । पर्व के इन आठ दिनों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय दिन अष्टान्हिका प्रवचन दिये जाते है । अष्टान्हिका प्रवचन का हिन्दी रुपांतरण दादा गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने किया है । इस प्रवचन में सबसे पहले 16 वें तीर्थंकर शांतिनाथ प्रभु को वंदन किया गया है । शांतिनाथ प्रभु को शांतिनाथ प्रभु यदि किसी ने बनाया है वह तत्व जीवदया का तत्व था । मेघरथ राजा के भव में देवों द्वारा ली गयी जीवदया की परीक्षा में कबुतर और बाज के प्रसंग में मेघरथ राजा ने स्वयं को मृत्यु के लिये समर्पित कर दिया फिर भी वे बाज की मांग को पूरी ना कर सके और विलाप करने लगे तब देवों ने अपने मुल स्वरुप में आकर राजा की जीवदया की अनुमोदना की । इस जीवदया के कारण उनकी प्रशंसा देवलोक में भी हुई और अगले भव में मेघरथ राजा 16 वें तीर्थंकर प्रभु श्री शांतिनाथ भगवान बने । उक्त बात गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा. ने राजेन्द्र भवन में कही । आपने बतलाया कि पर्युषण पर्व के आठ दिनों में हमें अपने श्रावकों के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिये । उन कर्तव्यों में सर्वप्रथम अमारी प्रवर्तन याने जीवों की हिंसा नहीं करना आता है । इन आठ दिनों में प्राणी मात्र को शांति का अनुभव हो ऐसे प्रयास हमारे होना चाहिये । जब कोई कष्ट देना वाला नहीं होगा तभी सुख की अनुभूति होगी । हमें इन आठ दिनों में आलस्य और प्रमाद अवस्था का त्याग करना है । पर्व के दिनों में अहंकार, क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को त्यागना है । क्योंकि यह कषाय हमारे भव की भ्रमणा बढ़ाने वाले है । जिनशासन में मानव जीवन ही हमें कषायांे की मुक्ति एवं आत्मा के कल्याण प्राप्त करने के लिये हुआ है । पर्वाधिराज पर्व के दिनों में हमें तिरने का अवसर मिला है तो मन में दया के भाव रखकर जीव मात्र के लिये हिंसा के भाव त्यागना है और यदि कोई व्यक्ति हिंसा कर रहा है उसे भी रोकने का प्रयास करना है । हमें हिंसा मन वचन काया से त्यागना है यदि कोई भूल हुई है तो उसके लिये मन वचन काया से मिच्छामि दुक्कड़ं प्राणी मात्र से करना है । गुरु के सामने अपने सारे पाप प्रकट कर देना चाहिये और डॉक्टर के सामने अपनी बिमारियां नहीं छुपाना चाहिये । मुनिश्री के प्रवचन की प्रेरणा पाकर बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने जीवदया की राशि लिखायी ।
इस अवसर पर मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. ने कहा कि हम वर्षभर में धर्म आराधना नहीं कर पाये तो त्रैमासिक चातुर्मासिक धर्म आराधना करें, वह भी नहीं कर पाये तो चातुर्मास दो माह धर्म आराधना करें और यह भी नहीं कर पाते है तो आठ दिन पर्युषण पर्व के दिनों में मन लगाकर धर्म आराधना करें यदि हमसे वह भी नहीं हो पाया तो कम से कम संवत्सरी महापर्व के दिन धर्म आराधना करके विश्व के प्राणी मात्र से क्षमायाचना करके अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का प्रयास करें ।
श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ के तत्वाधान में गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती मुनिराज श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज वैराग्ययशविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा. एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्रीजी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा., साध्वी श्री विमलयशाश्रीजी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में पर्युषण महापर्व की धर्म आराधना चल रही है । कार्यक्रम में तीर्थ के मेनेजिंग ट्रस्टी सुजानमल सेठ, कोषाध्यक्ष हुकमीचंदजी वागरेचा, तीर्थ के महाप्रबंधक अर्जुनप्रसाद मेहता, सहप्रबंधक प्रीतेश जैन आदि उपस्थित थे ।
आज पर्युषण महापर्व के प्रथम दिन अष्टान्हिका प्रवचन की प्रथम गहुंली का लाभ श्री प्रतापजी चौधरी बड़नगर/इन्दौर वालों को प्राप्त हुआ । पर्युषण पर्व के प्रथम दिन जिन मंदिर एवं दादा गुरुदेव के समाधि मंदिर में मन मोहक अंगरचना की गयी ।
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