राजगढ़ (धार) । प्रभु के अंतिम समय का प्रवचन हित शिक्षा के रुप में 16 प्रहर याने 48 घण्टे का हुआ । व्यक्ति के जीवन का अंतिम समय बहुत ही महत्वपूर्ण होता है । उस समय की सोच व्यक्ति की आत्मा का कल्याण भी करवा सकती है । ‘‘अंते मति सो गति‘‘ अंत समय में व्यक्ति के भाव जिस प्रकार के होते है, उसी प्रकार जीव की गति हो जाती है ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । उत्तराध्ययन सूत्र 36 अध्यायों में विभक्त है जिसमें प्रथम अध्याय विनय भाव का है । तीर्थंकर नहीं होने के बावजूद मिथ्या बुद्धि के कारण गौशालक को तीर्थंकर होने का अंहकार हो गया था । अंत में पश्चात के कारण प्रभु की करुणामयी दृष्टि से उसकी आत्मा का कल्याण हुआ और देवगति को प्राप्त हुआ । हमें बाह्य पदार्थो को नहीं जानना है हमें अंतर की बात को समझना है । सम्यक का अर्थ सही ज्ञान को प्राप्त करना होता है । यदि डॉक्टर किसी को सिर्फ 24 घण्टे जीवित रहने का अल्टीमेटम दे दे उस समय व्यक्ति विचलित हो जाता है पर उस समय 48 मिनिट की सामायिक उस जीव को केवलज्ञान तक पहुंचाने में समर्थ होती है । हमारे अंदर कल्याण के भाव नहीं आते है इस कारण हम अभी तक भटक रहे है । प्रभु ने सभी जीवों के प्रति करुणा के भाव रखें । अ- भवी को कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता । उक्त बात श्री राजेन्द्र भवन राजगढ़ में 50 दिवसीय प्रवचन माला में गच्छाधिपति आचार्य देवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा. ने कही । आपने कहा कि जीवन में कभी भी गुरु की निन्दा नहीं करना चाहिये । मृत्यु को निकट जानकर जीव को पश्चाताप के भाव मन में लाना चाहिये । जिससे जीव अच्छे शुद्ध विचारों के कारण सद्गति को प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है और आत्मा का कल्याण हो जाता है । तीर्थंकर प्रभु के दर्शन लगभग 9 हाथ की दूरी से करना चाहिये । पूजा के समय व्यक्ति का मुखकोश 8 परत (अष्टपड़) का होना चाहिये । जिन शासन भावना प्रधान शासन है । भावों से व्यक्ति कर्मो को बांध भी लेता है और कर्म गति से मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है । यदि धर्म क्रिया में भावशुद्धि नहीं है तो वह धर्मक्रिया निरर्थक साबित होती है । भावपूर्वक की गयी एक सामायिक भी आत्मा के कल्याण में समर्थ सिद्ध होती है ।
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