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पुण्यतिथि 11 दिसंबर पर विशेष-देशभक्ति गीतों के रचयिता गीतकार प्रदीप

 

    कविवर प्रदीप का नाम देशवासियों के लिए एक अत्यंत सम्माननीय नाम है। वे अपने गीतों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के संवाहक रहे। आज वे हमारे बीच नही हैं लेकिन उनके रचे देशभक्ति से ओतप्रोत गीत देशवासियों में सदैव उत्साह व उमंग का संचार करते हैं। 
    मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में 6 फरवरी 1915 को एक मध्यमवर्गीय ब्राम्हण परिवार में जन्में प्रदीप जी का मूल नाम पंडित रामचंद्र द्विवेदी था। बचपन मे उनका ध्यान पढ़ाई-लिखाई में नही होने से चिंतित माता-पिता ने उन्हें उनके बड़े भाई के पास इलाहाबाद भेज दिया। बाद में इलाहाबाद से ही उन्होंने स्नातक उपाधि प्राप्त की।
    उस समय इलाहाबाद में कवि गोष्ठियों की धूम थी, अतः अपनी साहित्यिक अभिरुचि के चलते प्रदीप जी भी इन कार्यक्रमों में उत्साह से भाग लेने लगे। यूँ तो अच्छा लिखने व गाने के कारण प्रदीप जी अत्यंत कम समय में लोकप्रिय हो ही गए थे किंतु जब महाकवि निराला नें उनके लेखन से प्रभावित होकर अपने एक लेख में उनकी प्रशंसा लिख दी तो उनकी ख्याति और भी बढ़ गई। निराला जी ने "माधुरी" पत्रिका में लिखे इस लेख में लिखा कि "आज जिन कवियों का प्रकाश हिंदी में फैला है, उनमें प्रदीपजी का प्रकाश अत्यंत उज्ज्वल एवं स्निग्ध है।"
    इसी दौरान प्रदीपजी किसी कार्यवश मुंबई गए। वहाँ भी वे काव्य गोष्ठियों में शिरकत करने लगे। ऐसी ही एक काव्य गोष्ठी में उनकी मुलाकात "बॉम्बे टॉकीज" कम्पनी से जुड़े फ़िल्म निर्देशक एन. आर.आचार्य से हुई। उन्होंने प्रदीपजी को "बॉम्बे टॉकीज" के मालिक हिमांशु राय से मिलवाया। हिमांशु राय ने प्रदीपजी की कविताओं से प्रभावित होकर उन्हें दो सौ रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह पर "बॉम्बे टॉकीज" में गीत लिखने हेतु अनुबंधित कर लिया।
    हिमांशु राय के इस संकेत पर कि फिल्मों में रामचंद्र द्विवेदी जैसा नाम ठीक नहीं लगेगा, उन्होंने अपने नाम के साथ उपनाम "प्रदीप" जोड़ लिया। तभी से वे प्रदीप नाम से पहचाने जाने लगे।
    बतौर गीतकार पहली मर्तबा उन्होंने फिल्म "कंगन" में चार गीत लिखे और उनमें से तीन को स्वर भी दिया। सन 1939 में बनी इस फ़िल्म ने उनके लिखे "हवा तुम धीरे बहो....", "हम आजाद परिंदों को...." और "राधा, राधा प्यारी राधा...." जैसे गीतों के साथ रजत जयंती मनाई और प्रदीपजी का नाम चमकने लगा।
    आजादी के लिए संघर्ष के उस दौर में बॉम्बे टॉकीज की ही फ़िल्म "बंधन" (1940) में प्रदीपजी के लिखे गीत "चल चल रे नौजवान, रुकना तेरा काम नहीं..." ने लोगों की भावना को स्पर्श कर उनमें अजीब-सा उत्साह भर दिया। दिल्ली के मैजेस्टिक टॉकीज में दर्शकों की माँग पर सिनेमा मालिक को दूसरी बार फ़िल्म चलाकर यह गीत दिखाना पड़ा। महादेव देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद के मत्रों से कर दी। यहाँ तक कि इस गीत को राष्ट्रीय गीत बनाने के लिए आंदोलन भी चला। इस फ़िल्म के शेष गीत भी काफी लोकप्रिय हुए और फ़िल्म ने स्वर्ण जयंती मनाई। 
    बाद में पाँच और फिल्मों, "पुनर्मिलन", "झूला", "नया संसार", "कंगन" और "किस्मत" में प्रदीपजी ने बॉम्बे टॉकीज के लिए गीत लिखे। सन 1949 की "किस्मत" फ़िल्म का अनिल विस्वास द्वारा संगीतबद्ध उनका गीत "दूर हटो ए दुनिया वालों, हिंदुस्तान हमारा है...."सुनकर दर्शक झूम उठे। यह फ़िल्म उस जमाने में साढ़े तीन साल चली थी।
     इसके बाद हिमांशु राय का निधन हो गया और उनकी पत्नी देविका रानी के अपने कार्य में बेवजह हस्तक्षेप के कारण कलम के इस ईमानदार सिपाही ने बॉम्बे टॉकीज से सम्बन्ध तोड़ लिया और बॉम्बे टॉकीज से ही अलग हुए अन्य 14 व्यक्तियों के साथ मिलकर "फिल्मिस्तान" नामक नई कम्पनी की नींव रखी। फिल्मिस्तान ने सन 1944 में "चल चल रे नौजवान फ़िल्म बनाई, जो फ्लॉप रही। बाद में प्रदीपजी किन्ही कारणों वश "फिल्मिस्तान" से भी अलग हो गए। इस बीच निर्माता नंदलाल जयवंतलाल की चार फिल्मों, "कादम्बरी" (1940), "आम्रपाली" (1945), "सती तोरल" और "वीरांगना" (दोनों 1947) में उन्होंने मिस कंवल बीए छद्म नाम से गीत लिखे। सती तोरल में उन्होंने लीक से हटकर "मेरी नई है जवानी, पुरानी चोली न पहनूँ....."जैसा श्रृंगार गीत लिखा।
    सन 1949 में प्रदीपजी नें ज्ञान मुखर्जी और अमिय चक्रवर्ती के साथ मिलकर "लोकमान्य प्रोडक्शन" नामक नई फिल्म संस्था स्थापित की और इसके बैनर तले "गर्ल्स स्कूल" नाम की फ़िल्म बनाई। इस फ़िल्म के सभी गीत उन्होंने लिखे, जिन्हें अनिल विस्वास नें संगीतबद्ध किया। लेकिन यह फ़िल्म नही चल पाई। इस फ़िल्म से घाटा खाकर प्रदीपजी ने फ़िल्म निर्माण से ध्यान हटाकर गीत रचना पर ही अपना पूरा ध्यान केंद्रित कर लिया।
    सन 1954 में प्रदर्शित हुई "नास्तिक" फ़िल्म से प्रदीपजी की पहचान धार्मिक गीतों के रचनाकार के रूप में बनी। इस फ़िल्म में उन्होंने पहली बार गरबा गीत लिखा, "कान्हा बजाए बाँसुरी...।" इस फ़िल्म में ही सी.रामचंद्र के संगीत निर्देशन में प्रदीपजी का ही लिखा व गाया गीत "देख तेरे संसार की हालत....." बेहद लोकप्रिय हुआ। इसी वर्ष आई फ़िल्म "जागृति" के गीत "आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ.....", "दे दी हमें आजादी....." व " हम लाए हैं तूफान से कश्ती....." आदि ने काफी धूम मचाई। राष्ट्रीय अवसरों पर आज भी ये गीत बजाए जाते हैं।
    सन 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ। युद्ध समाप्ति के पश्चात 29 जनवरी 1963 को इस युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की स्मृति में लाल किले की प्राचीर पर राष्ट्र को समर्पित एक विशेष कार्यक्रम रखा गया। कार्यक्रम में लता जी ने संगीतकार सी.रामचंद्र के निर्देशन में प्रदीपजी का लिखा गीत "ऐ मेरे वतन के लोगों......" गाया तो मंच पर उपस्थित पंडित जवाहरलाल नेहरू भी अपने आँसू नही रोक पाए।
    सन 1975 में छोटे बजट की धार्मिक फिल्म "जय संतोषी माँ" नें अपार सफलता प्राप्त की, जिसमें प्रदीपजी का लिखा आरती गीत "मैं तो आरती उतारूँ रे....." बहुत लोकप्रिय हुआ। आज भी यह गीत संतोषी माता की आरती के रूप में लोकप्रिय है। "जय संतोषी माँ" की सफलता से उत्साहित होकर बाद में धार्मिक फिल्मों का दौर चला और प्रदीपजी की सारी सृजन शक्ति धार्मिक गीतों की रचना में ही लग गई। हालांकि इसके लिए प्रदीपजी से कहीं अधिक हिंदी फिल्मों की भेड़चाल वाली प्रवृत्ति जिम्मेदार रही।
    प्रदीपजी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी से अत्यंत प्रभावित थे। इसी प्रभाव के चलते उन्होंने गाँधी जी को समर्पित गीत लिखा, "दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल.....।" इस गीत की रचना पर उनका कहना था कि "कल शायद मैं इस दुनिया में नही रहूँगा लेकिन गाँधी जयंती पर जब यह गीत बजेगा तो लोग मुझे भी याद कर लिया करेंगे।"
     प्रदीपजी ने कलम का कभी भी गलत इस्तेमाल नही किया। आर्थिक प्रलोभनों को ठुकराकर उन्होंने अपनी रचनाओं के स्तर को सदैव बनाए रखा। सन1995 में में मध्यप्रदेश सरकार नें देश के इस गौरव का सम्मान करने के लिए जब विशेष समारोह आयोजित कर राजकीय सम्मान से सम्मानित किया तब उन्होंने कहा था, "यह मेरा नहीं बल्कि शब्दों का सम्मान है और उम्र के इस पड़ाव पर मेरी इच्छा है कि मैं आखिरी दम तक शब्दो की प्रतिष्ठा बनाए रख सकूँ।"
    प्रदीपजी अपने जीवन के अंतिम दौर में देश के हालातों से अत्यंय व्यथित थे और इसी के चलते उन्होंने लेखन कार्य बंद कर दिया था। इस विषय में पूछे जाने पर उन्होंने कहा था कि "अब लिखने का मन नहीं होता क्योंकि वैसा माहौल नही रहा। यह देश तो राष्ट्रगीत लिखने लायक ही नहीं रहा। देश पार्टियों में बँट गया है और हर आदमी दंभी हो गया है।"
     अपनी लेखनी से श्रोताओं के दिल-दिमाग को उद्वेलित और आंदोलित कर देने वाले प्रदीपजी नें कभी पुरस्कार, सम्मान और तमगों की लालसा नही रखी, बावजूद इसके उन्हें समय-समय पर कई पुरस्कार-सम्मानों से नवाजा गया। सन 1961 में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार के पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, राष्ट्रकवि सम्मान, सुर सिंगार सम्मान, राष्ट्रीय एकता पुरस्कार व संत ज्ञानेश्वर सम्मान आदि के साथ ही सन 1997 में फ़िल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान "दादा साहेब फाल्के पुरस्कार" से भी अलंकृत किया गया।
     "तेरे द्वार खड़ा भगवान......" (वामन अवतार), "दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले......." (दशहरा), "कोई लाख करे चतुराई......" (चंडी पूजा), "पिंजरे के पंछी रे......." (नागमणि), "मुखड़ा देख रे प्राणी......(दो बहनें), "हमनें जग की अजब तस्वीर देखी........" और "चल अकेला, चल अकेला........" (सम्बन्ध) जैसे अमर गीतों के रचयिता प्रदीपजी का 11 दिसंबर 1998 को निधन हो गया, किंतु उनका नाम शौर्य, भक्ति विशेषकर देशभक्ति गीतों के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।
    यह देश कवि प्रदीपजी और उनके गीतों का सदैव ऋणी रहेगा, किंतु खेद का विषय है कि उनकी स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए किसी भी स्तर पर कोई प्रयास अभी तक नहीं किये गए। वे बड़नगर (मध्यप्रदेश) के थे लेकिन यहाँ भी उनकी याद को स्थाई बनाने की कोई योजना या कार्य को मूर्त रूप देने में मध्यप्रदेश सरकार ने रुचि नही ली। हालांकि प्रदीपजी का ऋण उतारा नही जा सकता लेकिन मध्यप्रदेश सरकार द्वारा जिस तरह सिने गायकों और संगीतकारों को सम्मानित करने हेतु "लता मंगेशकर सम्मान" स्थापित किया गया है, ठीक इसी गीतकारों के उत्साहवर्द्धन एवं सम्मान हेतु प्रदीपजी की स्मृति में पुरस्कार स्थापित कर उनके प्रति कृतज्ञता दर्शाई जा सकती है। यही हमारी प्रदीपजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।





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