(अक्षय भण्डारी की कलम)
न मोर बचा,न खरमोर,बिजली के तारों ने छीन ली सबकी उड़ान! जहाँ कभी परिंदों की किलकारियाँ गूंजती थीं, आज वहाँ बस जलते पंखों की ख़ामोशी है! सरदारपुर खरमोर अभयारण्य के नाम पर पिछले 41 वर्षों से एक ऐसी विसंगति को ढोया जा रहा है,जिसने न केवल स्थानीय जनता को उनके अधिकारों से वंचित किया है, बल्कि जिस खरमोर के नाम पर यह संरक्षित क्षेत्र घोषित हुआ था, उसी की उपस्थिति अब लगभग समाप्त हो चुकी है। सरकार ने 14 ग्राम पंचायतों की ज़मीनें अभयारण्य के नाम पर बंधक बना दीं। रजिस्ट्री पर रोक लगा दी, किसानों के हक़ छीन लिए, कहा – "अगर ज़मीन बिकेगी, तो पक्षी मर जाएँगे!" लेकिन जब उन्हीं ज़मीनों पर हाईटेंशन पावर लाइन खड़ी हुई, तो अफ़सरों ने अपनी आँखें मूँद लीं! क्या ये तार अभयारण्य से होकर नहीं गुज़रे? क्या इन टॉवरों ने परिंदों के पर नहीं जलाए? क्या इन लाइनों ने खरमोर और मोरों की उड़ान नहीं छीनी? सच तो यह है कि जो अभयारण्य कभी पक्षियों की शरणस्थली था, आज वही उनके लिए मौत का मंज़र बन चुका है!
रजिस्ट्री हुई तो परिंदे मारे जाएँगे,पर जब टॉवर खड़े हुए,तब यह दर्द क्यों नहीं दिखा? हर दिन बिजली के इन तारों से टकराकर न जाने कितने परिंदे दम तोड़ रहे हैं,लेकिन वन विभाग और सरकार की चुप्पी उतनी ही गहरी है जितनी उनकी साज़िश!
यह कौन सा संरक्षण है,जहाँ रोटी देने वाला किसान गुनहगार है,मगर मौत के टॉवर लगाने वाली कंपनियाँ पूजनीय हैं? किसानों की ज़मीन पर खेती करना अपराध बना दिया,पर उन ज़मीनों पर पॉवर लाइन बिछाना विकास कहलाया! क्या यह अभयारण्य पक्षियों के लिए था या टॉवर माफ़ियाओं के लिए? अब जवाब देना होगा – अगर सच में संरक्षण चाहिए तो पहले इन मौत के तारों को हटाओ! वरना यह साफ़ है कि न अभयारण्य बच पाएगा, न खरमोर, सिर्फ़ अफ़सरों की जेबें भरेंगी और किसानों का हक़ जलकर राख होता रहेगा! सरकार, जवाब दो! रजिस्ट्रियां होने से पशु-पक्षी मृत्युलोक नहीं जाते, मगर टॉवर खड़े होते ही उनकी उड़ान छीन ली जाती है! "संरक्षण की आड़ में संहार का खेल,खरमोर का बसेरा, अब आखिरी पड़ाव पर ढलने को है!" वर्ष 2008 में पॉवर ग्रिड कार्पोरेशन ने अधिसूचित क्षेत्र में बिना वन विभाग की अनुमति के ग्रिड गाड़ दिया,अब वही राजगढ़ बताकर कागज़ी सहमति का स्वांग रचा जा रहा है! वन विभाग की मौन साधी उदासीनता ने इंदौर-दाहोद रेल परियोजना को अभयारण्य के दरवाज़े तक पहुंचा दिया,सर्वे कहता है—रेलवे लाइन अभयारण्य से मात्र 1 किमी दूर, और इको-सेंसिटिव जोन से भी सांस भर की दूरी पर!जिसे संरक्षित घोषित किया था,अब उसी को विकास की चिता पर रखकर विनाश का महायज्ञ किया जा रहा है! अब जब अभयारण्य को बलि का बकरा बना ही दिया गया, तो इसकी तथाकथित सुरक्षा की झूठी कहानी भी ख़त्म होनी चाहिए! संरक्षण के नाम पर ढोंग कब तक? अगर खरमोर तबाह ही करना था, तो अभयारण्य का तमगा क्यों? अब बस एक ही रास्ता बचा है— या तो संरक्षण का दिखावा बंद करो, या फिर विनाश की यह पवित्र साजिश उजागर करो!