यही कारण है कि आज गुरुदेव मारुतिनन्दनजी शास्त्री जी हर भक्तों के दिलो में अपनी जगह बना बैठे है हर कोई इनके बारे में जानना चाहता है। तो आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से गुरुदेव मारुतिनन्दनजी शास्त्री जी का जीवन परिचय जानेंगे।
श्री गुरुदेव मारुतिनन्दनजी शास्त्री का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के यमुनातट स्थित पदारथपुर ग्राम में 02 अक्टूबर 1978 में श्राद्धपक्ष की आमावस्या को हुआ।
उनके पिता का नाम श्री भगवानदीन तिवारी हैं और माता का नाम श्रीमती जानकी देवी हैं।
महाराज जी का बाल्यकाल दिव्यता और संस्कारों की छाया में व्यतीत हुआ। माता-पिता द्वारा संचित दैवीय संस्कारों ने उन्हें बचपन से ही सरल, विनम्र और मृदुभाषी बनाया। उनकी बुद्धि अद्वितीय और कुशाग्र थी। बचपन से ही महाराज जी का रुझान धर्म और भक्ति की ओर था। वे प्रतिदिन अपने गांव के श्री शिवमंदिर में जाकर महादेव जी की सेवा और पूजा में लीन रहते थे। बाल्यकाल से ही उनका सत्संग, साधु-संतों की सेवा, और सत्शास्त्रों का अध्ययन करने में गहरा मन लगता था।
श्री अनिरुद्धाचार्य जी महाराज और पूज्य गुरुदेव मारुतिनंदनजी शास्त्री जी का आध्यात्मिक संवादअनिरुद्धाचार्य जी महाराज और पूज्य गुरुदेव मारुतिनंदनजी शास्त्री जी
वृंदावन में श्री अनिरुद्धाचार्य जी महाराज और पूज्य गुरुदेव मारुति नंदन शास्त्री जी महाराज का पावन मिलन हुआ। इस मिलन के दौरान भागवत पर गहन चर्चा हुई, जिसमें दोनों संतों ने एक-दूसरे का आदरपूर्वक अभिवादन किया। यह पवित्र अवसर भक्तों के लिए आशीर्वाद और प्रेरणा का स्रोत बना।
केवल 13 वर्ष की आयु में, महाराज जी ने घर का त्याग कर गंगा के तट पर स्थित गुरुकुल भृगुधाम भिटौरा में विद्याध्ययन के लिए प्रस्थान किया। काशी और वृंदावन में रहकर उन्होंने वेद और वेदांग का गहन अध्ययन किया। 18 वर्ष की आयु से ही उन्होंने भागवत, रामायण, और गीता पर प्रवचन देना प्रारंभ किया, जिससे उन्होंने असंख्य लोगों को, जो जीवन की दिशा से भ्रमित थे, ईश्वर की ओर उन्मुख किया।
महाराज जी का बाल्यकाल
महाराज जी के गुरुदेव ने उन्हें विश्व धर्म चेतना के उद्देश्य से प्रेरित किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों, नगरों और ग्रामों में यज्ञ, अनुष्ठान, कथा, और सत्संग के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की पताका को न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी फहराया। उनके दिव्य और दैविक स्वरूप को देखकर यही प्रतीत होता है कि हम साक्षात भगवान के जीवन्त विग्रह के सम्मुख बैठे हैं।
महाराज जी की शिक्षा और दीक्षा अत्यंत अलौकिक और प्रभावशाली रही। बचपन में ही उन्होंने अल्प समय में ही शास्त्रों का गहन अध्ययन कर उन्हें कंठस्थ कर लिया था। श्रीधाम वृंदावन से उन्होंने आध्यात्मिक मार्ग पर अपनी यात्रा को दिशा दी।
इसके अतिरिक्त, महाराज श्री ने अयोध्या में श्री राम कथा का अध्ययन श्रीरामानंद संप्रदाय के संतो से किया । इस अध्ययन ने उनकी ज्ञान-सम्पदा को और अधिक समृद्ध किया। साथ ही, श्री श्री जी बाबा जी महाराज ने भी उन्हें अपने मार्गदर्शन से धर्म और भक्ति की उच्चतर ऊँचाइयों तक पहुँचने में सहायता प्रदान की।
अन्न-क्षेत्र की शुरुवात
कोरोना जैसी भीषण आपदा के समय में महाराज जी ने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक सेवा में भी अपना अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने जरूरतमंदों के घर-घर जाकर अन्न वस्त्र और ऑनलाइन के माध्यम से सहायता पहुंचाई, जिससे लोग संकट की घड़ी में अपने आप को अकेला महसूस न करें। उनके नेतृत्व में वृंदावन में गायों, बंदरों और अन्य जीवों के लिए प्रतिदिन भोजन का प्रबंध किया गया। महाराज जी की यह करुणा और सेवा भाव हर जीव के प्रति उनकी गहन समर्पण भावना को दर्शाता है।
इसके अलावा, महाराज जी निरंतर विभिन्न सेवाओं के माध्यम से जनकल्याण का कार्य कर रहे हैं। उनका अनूठा प्रयास है कि वे पूरी दुनिया को सनातन धर्म से जोड़ें और इसके गूढ़ आदर्शों को जनमानस तक पहुंचाएं। यह उनकी दूरदर्शिता और आत्मसमर्पण का प्रतीक है। उनकी यह पावन मुहिम एक दिन स्वर्णिम अक्षरों में इतिहास का हिस्सा बनेगी, और हम सभी को इस महान कार्य का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित होना चाहिए। आइए, हम भी इस दिव्य यात्रा में अपना योगदान दें, जो मानवता के कल्याण और सनातन धर्म के प्रसार के लिए समर्पित है।