झाबुआ। रक्षा बंधन पर्व पर एवं नवकार आराधना के अंतिम दिन प.पू अचार्य देव श्रीमद्विजय ऋषभचंद्र सुरीश्वरजी महाराजा साहेब के शिष्य ओजस्वी वक्ता मुनिराज श्री रजतचंद्र विजयजी म.सा.ने धर्मसभा में फरमाया दान शील तप एवं भाव में चार धर्म के भेद हैं। इनमें तप को करना दूश्कर कहा गया है। तप धर्म से कर्मों की निर्जरा शीघ्र होती है। भगवान भी तप मार्ग से तीर्थंकर पद प्राप्त करते हैं । शास्त्रों में इच्छा निरोध तप कहा गया है। इच्छाओं को रोके वह तप है। तप के 12 प्रकार एवं उनमें 6 तरह के अभ्यंतर तप उसमें प्रायश्चित विनय वैयावच्च स्वाध्याय कार्योत्सर्ग एवं ध्यान कह गया है। मुनिराज श्री रजतचंद्र विजयजी म.सा. ने पंच परमेष्ठि के ध्यान की प्रक्रिया बताई ऊँकार नाद को करके समझाया, और कहां ओंकारनाद से आंतरिक शक्तियां मिलती है एवं विशुद्धि होती है। विविध मुद्राए बताई। धर्मसभा में विराजे श्रद्धालुओं ने ध्यान प्रक्रिया को समझा अच्छे से सिखा व आनंद की अनुभूति प्राप्त की। वैयावच्च पर प्रकाश डालते मुनि श्री ने बताया साधु भगवंत एवं आराधको को भक्ति से वात्सल्य पूर्वक दिया जाने वाले आहार को सुपात्रपान कहा गया है। वैयावच्च भक्ति से प्राप्त शालिभद्र के वैभव को पाने जैसा नहीं छोड़ने जैसा है, सारे वैभव में भी शालिभद्र को दुख नजर आया ,तो छोड़ दिया व दीक्षित हो गये एवं मोक्ष के आराधक बने। त्यागी से हमेशा त्याग प्राप्त होता है, रागी से राग इसलिए वितरागी पद की कामना कर संसार काराग्रह से मुक्त बने। मुनिश्री रजतचंद्र विजयजी ने रक्षाबंधन पर्व को भाई-बहन के पवित्र प्रेम का प्रतीक बताया मुनि श्री कहते हैं भाई सिर्फ बहनों को सुविधा सामग्री भेजते हैं सही अर्थो मैं उन्हें सुरक्षा का कर्तव्य करना चाहिए । मुनिश्री ने बताया पहले स्त्रियां अपने पति के दुश्मनों को राखी भेजकर उन्हें भाई बनाती व हमेशा की दुश्मनी खत्म कराती थी। ये रिश्ता प्रेम व रक्षा का प्रतीक होने से रक्षा बंधन जगत में प्रसिद्ध है। मुनि श्री ने नवकार आराधना लाभार्थी यशवंत भंडारी की अनुमोदना करते कहां एसे मंगलमय लाभ भाग्य से मिलते हैं। प्रभावना गुरु भक्त ने व गौतम स्वामी आरती सतीशजी कोठारी को प्राप्त हुई। लब्धितप में बियासने के लाभार्थी हेमंत बावेल व संदीप राजरतन का गुरु समर्पण चातुर्मास समिति की ओर से बहुमन किया गया।
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