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रक्षाबंधन (3 अगस्त ) पर विशेष -पौराणिक व ऐतिहासिक संदर्भो में 'रक्षाबंधन'


 भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी रही है। "सात वार नौ त्योहार की कहावत यहाँ पूरी तरह लागू होती है। यहाँ मनाए जाने वाले उत्सव, पर्व, त्योहारों का प्रायः धार्मिक व सामाजिक महत्व होता है। ऐसा ही एक पर्व है "रक्षा बंधन का।

   रक्षा बंधन अर्थात रक्षा का बंधन। हमारे यहाँ एक पवित्र धागे को प्रतीक मान कर रक्षा के बंधन के रूप में कलाई पर बाँधा जाता है। दार्शनिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति जिस किसी को भी अपनी रक्षा करने में समर्थ मानता हो, उसे रक्षा के बंधन में बाँध सकता है। इस पर्व से जुड़ी हमारी धार्मिक, पौराणिक कथा-किवदंतियों से भी इसी बात की जानकारी मिलती है। 

   एक कथा महाभारत काल से जुड़ी है। शिशुपाल का वध करते समय भगवान श्री कृष्ण की तर्जनी उंगली में चोंट लग गई और खून बहने लगा। वहाँ उपस्थित द्रौपदी ने अपनी धोती ( साड़ी ) का पल्लू फाड़कर उनकी उंगली पर बाँध दिया। भगवान श्री कृष्ण द्रौपदी को अपनी बहन मानते थे और उसके स्नेह भरे बँधन में बँध चुके थे। उन्होंने द्रौपदी को सदैव रक्षा करने का वचन दिया।

   समयांतराल में कौरवों की सभा में जब द्रौपदी का चीरहरण किया जाने लगा और द्रौपदी के बहुत चीख-पुकार के बावजूद जब पाँचो पांडव पति, भीष्म पितामह व गुरु द्रोणाचार्य आदि सिर झुकाए बैठे रहे, तब द्रौपदी ने अपनी इज्जत की रक्षा के लिए भगवान श्री कृष्ण को पुकारा। द्रौपदी की यह कातर पुकार सुनकर श्री कृष्ण को द्रौपदी का वही स्नेह रूपी बँधन याद आया और उन्होंने द्रौपदी को चीरहरण से बचाया।

   एक पौराणिक प्रसंग के अनुसार वामन अवतार के पश्चात राजा बलि ने अपनी भक्ति के बल पर भगवान विष्णु से हर समय अपने सम्मुख रहने का वचन ले लिया। इससे लक्ष्मी जी सहित सभी देवी- देवता चिंतित हो गए। देवर्षि नारद के कहने पर लक्ष्मीजी ब्राम्हणी के रूप में राजा बलि के पास गई और उनके महल में आश्रय माँगा। राजा बलि ने ब्राम्हणी को आश्रय दे दिया। आश्रय पाने के बाद ब्राम्हणी रूपी लक्ष्मीजी ने अपने व्यवहार से राजा बलि को प्रभावित कर लिया और श्रावण पूर्णिमा को बलि के हाथ मे रक्षा सूत्र बाँध कर अपना भाई बना लिया। लक्ष्मीजी ने संकल्प में राजा बलि से विष्णुजी को वापस अपने साथ बैकुंठ ले जाने का आग्रह किया। संकल्प से बँधे बलि को बहन लक्ष्मीजी का आग्रह स्वीकार करना पड़ा।

   एक अन्य पौराणिक प्रसंग के अनुसार देवताओं और राक्षसों के बीच लंबे समय तक चले घमासान युद्ध मे जब देवराज इंद्र को मात खाना पड़ी तो इंद्र को आगे जीत की आशा न देख युद्ध का मैदान छोड़ना पड़ा। तीनो लोकों में राक्षसों का राज कायम हो गया। राक्षसों की पूजा होने लगी और अधर्म का बोलबाला हो गया। राक्षसों ने इंद्र के राजसभा में प्रवेश के साथ यज्ञ-पूजा वगैरह पर भी प्रतिबंध लगा दिया।

   अधर्म का बढ़ता साम्राज्य देख देवतागण चिंतित हो उठे और उन्होंने इंद्र से उपाय करने को कहा। इस पर देवराज इंद्र गुरु बृहस्पति के पास अंतिम युद्ध की अनुमति लेने पहुँचे। गुरु बृहस्पति ने मना कर दिया तो इंद्र जिद पर अड़ गए तब गुरु बृहस्पति ने इंद्र को युद्ध के लिए जाने से पहले "रक्षा विधान" करने को कहा। "रक्षा विधान" के अंतर्गत अपनी रक्षा करने वाले मंत्रों का जाप व पूजन किया जाता है।

   इंद्र ने श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा विधान किया। पूजन सम्पन्न होने पर उनकी पत्नी शची ने इंद्र के दाँये हाथ में "रक्षा-सूत्र" बाँध दिया। इसके बाद हुए युद्ध में इंद्र की राक्षसों पर जीत हुई। तभी से रक्षा बँधन का यह त्योहार श्रावण की पूर्णिमा को मनाया जाने लगा।

   इस पौराणिक प्रसंग में पत्नी शची नें पति इंद्र को रक्षा सूत्र बाँधा था। अतः यह स्पष्ट होता है कि रक्षा का यह बँधन किसी विशेष रिश्ते तक सीमित नही है। कोई भी व्यक्ति अपनी रक्षा में समर्थ व योग्य किसी दूसरे व्यक्ति को अपने स्नेह रूपी रक्षा के बँधन में आबद्ध कर सकता है। "अभिज्ञान शाकुंतलम' में वर्णित बालक भरत की कलाई में ऋषियों द्वारा बाँधे गये "रक्षा करंडकम" का प्रसंग इसी तथ्य की पुष्टि करता है। महाभारत के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने युद्ध भूमि में जाने से पूर्व युधिष्ठिर से रक्षाबंधन का त्योहार अपनी सेना के साथ मनाने को कहा था, ताकि उनके भाइयो व सेना की रक्षा हो सके। युद्ध मे जाने से पूर्व माता कुंती द्वारा अपने नाती अभिमन्यु को एवं द्रौपदी द्वारा भगवान श्री कृष्ण को राखी बाँधने का प्रसंग है।

   प्राचीन काल मे योद्धाओं की पत्नियाँ रक्षा सूत्र बाँध कर तथा तिलक लगाकर उन्हें युध्द भूमि में विदा करती थीं ताकि वे विजयी होकर लौटें। मुगल राजा हुमायूँ द्वारा हिंदू रानी कर्मावती के रक्षा सूत्र की मर्यादा की रक्षा करना व सिकंदर-पोरस युद्ध में सिकंदर की पत्नी सोफिया द्वारा पोरस को रक्षा सूत्र भेजकर अपने सुहाग की रक्षा का वचन लेने और फिर पोरस द्वारा जीतने के बाद सिकंदर को जीवनदान देने जैसे ऐतिहासिक प्रसंग भी यही प्रमाणित करते हैं कि रक्षाबंधन किसी रिश्ते तक सीमित नही है।

   हालांकि वर्तमान में भी गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, ननंद-भाभी,  बुआ-भतीजी, मामा-भाँजी, जीजा-साली, चाचा-भतीजी के बीच भी रक्षा की रस्म होती है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देश रक्षा, धर्म रक्षा, पर्यावरण रक्षा आदि के लिए भी रक्षा सूत्र बाँधा जाता है। लेकिन मुख्य रूप से यह पर्व भाई-बहन के बीच ही मनाया जाता है।

    सावन के आरंभ होते ही वर्षा की रिमझिम फुहारों के बीच जब तीज-त्योहारों की झड़ी लगती है तो सभी भाई-बहनों को इसी दिन की विशेष प्रतीक्षा रहती है। रक्षाबंधन के इस दिन की कल्पना ही भाई-बहनों के मन को खुशियों व उत्साह से सराबोर कर देती है।

   रक्षाबंधन के दिन बहनों द्वारा अपने लाड़ले भाइयों के लिए थाली सजाई जाती है, जिसमें रंग-बिरंगी आकर्षक राखियों के साथ नारियल (श्रीफल), मिठाई कुंकूम व अक्षत रखकर दीपक जलाया जाता है। भाई अपने सिर पर टोपी या साँफ़ा पहनता है और फिर आती है वह पवित्र घड़ी, जिसमें बहन अपने भाई को तिलक लगा कर उसकी कलाई पर राखी के रूप में रक्षा सूत्र बाँधती है और मिठाई खिलाकर उसकी आरती उतारती है, भाई की लंबी उम्र की कामना करती है। भाई भी अपनी बहन को कोई सुंदर उपहार या नेग राशि भेंट कर उसके द्वारा बाँधे गये रक्षा सूत्र की लाज मरते दम तक रखने का वचन देता है।

   वर्तमान भौतिक अर्थ प्रधान युग में जब सभी प्रकार की मान्यताओं-परम्पराओं का स्वरूप "औपचारिकता" में परिवर्तित होता जा रहा है, रक्षाबंधन का यह पुनीत पर्व भी इस प्रभाव से अछूता नही रहा है। लेकिन अपने स्वरूप में तमाम बदलावों के बावजूद भाई-बहन के कोमल, गरिमामय व स्नेहपूर्ण रिश्ते की मधुरता व मिठास इस पर्व के साथ सदा की भाँति जुड़ी हुई है।

लेखक- योगेन्द्र माथुर

34, रावला, गुदरी बाजार, उज्जैन।

मोबाइल- 94068 40150

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